शठे शाठ्यम समाचरेत

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I received the news of Afzal Guru being hanged through a SMS of my cousin. It did not make me happy but it brought a sigh of relief- Justice Delayed but not denied. Capital punishment is not a happy thing to talk about and I hate the whole process of a person being executed by a group of people at the behest of orders given by the State. In plain words- this is a murder and it can’t be justified even if the whole legal process has been followed rigorously. If we can’t produce life, we can’t take it away too- that goes the argument against it.

But, what punishment can be meted out to these beasts that mindlessly kill people and without making any discrimination. Kasab inadvertently fired at anything and everything that came in his way. During attack on Gujarat’s Akshardham temple – terrorists killed even small children without flinching. Are they human beings when they perform this act- NO, they have lost all their humanity and they are nothing more than wild animals! So, what is our dharma if some wild animal has entered our home and killing our children with no mercy? As our scriptures tell us – शठे शाठ्यम समाचरेत (Do unto others as they to you- दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार उचित है |).

No mercy is required for these perpetrators of terrorism. Though, it is a very painful process to kill someone but what option do we have to stop such acts in future. As a State, we need to show a tough stance on terror and that can be demonstrated only through speedy trials and such no-nonsense approach.  So, the death of anybody can’t be celebrated but celebration is definitely due to those martyrs who laid down their life fighting for the country. जय हिन्द !!!!

विनाशकाले विपरीत बुद्धि

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विनाश के समय बुद्धि पलट जाती है अथवा बुद्धि पलटने के कारण विनाश होता है – ये तो बहस का विषय हो सकता है किन्तु उपर्युक्त सूक्ति मुझे भाग्यवादी अधिक प्रतीत होती है | यदि हम इसकी व्याख्या करें तो इसका अर्थ ये निकलता है कि जब इंसान का विनाश निकट आता है तो उसकी बुद्धि उसका साथ छोड़ देती है अर्थात् विनाश तो पहले से ही सुनिश्चित होता है बस उसे बुद्धि से सहयोग प्राप्त हो जाता है और उसका विनाश आसानी से संपन्न हो जाता है | व्यक्तिगत तौर पर मैं कर्म की महत्ता में विश्वास रखता हूँ; अतः मैं ये मानता हूँ कि बुद्धि के अक्रिय हो जाने के कारण ही ऐसी स्थिति आती है | जब लोग अपने हितैषियों की बात मानना बंद कर दें, अधिक चिडचिडे हो जाएँ , अपनी सोच को सर्वोपरि मानने लगें , अपने निकट सम्बन्धियों को चोट पहुँचाने लगें तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है और इस पर कहीं तो विराम लगना चाहिए नहीं तो बहुत देर हो जायेगी |

इंसान बहुत बार नकारात्मक सोच का शिकार हो जाता है और उसे पूरी कायनात उसके विरोध में षड़यंत्र करती हुई नज़र आती है – यदि कोई कार्य विफल हो जाता है तो उसके कारणों को खोजने के बजाये वो भाग्य को दोषी ठहराने लगता है और ऐसे में कोई उसे सही सलाह देने का प्रयास भी करंता है तो उपर्युक्त उल्लेखित लक्षण प्रदर्शित करने लगता है और अपने हितैषियों से दूर होता जाता है और पुनः विफलताओं का ग्रास बनता जाता है – ये एक प्रकार का दुष्चक्र बन जाता है जो कि विनाश के समीप ले जाने में उसकी मदद करता है और इसी पूरी प्रक्रिया को तुलसीदास ने कितनी सुन्दरता से एक पंक्ति में समझा दिया है- विनाशकाले विपरीत बुद्धि |

अब प्रश्न ये है कि इससे निकला कैसे जाए तो इससे निकलने का एक सरल उपाय मुझे आज अपना बिस्तर ठीक करते हुए मिला | हुआ यूँ कि सदैव कि भाँति आज भी मेरा बिस्तर बहुत ही अस्त-व्यस्त हालत में था तो मैंने सोचा कि आज इसे मैं ठीक करके ही रहूँगा | कितना ठीक हुआ ये तो रब ही जाने पर मुझे उसे ठीक करने में जो परिश्रम करना पड़ा, उसकी वजह से मैं संतुष्ट हूँ और मेरा तो सीधा साधा सिद्धांत है कि यदि आप थके हैं तो आप प्लेटफार्म पर एक चादर बिछा कर भी सो सकते हैं; मेरे बिस्तर में तो दो दो गद्दे हैं | खैर, जब बिस्तर ठीक करने का बीड़ा मैंने उठाया तो मुझे ये ज्ञात नहीं था कि ये इतना मुश्किल होगा क्योंकि समझ में ही नहीं आ रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ और कौन सा सामान कहाँ रखूँ | थोडा सा समय तो मैंने इस दुविधा में बिताया , फिर ये निश्चय किया कि सारा सामान उठा कर दो कुर्सियों पर रखता हूँ और बिस्तर ठीक करता हूँ ; उसके बाद देखा जाएगा कि क्या करना है | इस छोटे से उपाय के कारण मानो मेरी दुनिया ही बदल गयी और मेरा सारा असमंजस पल भर में छंट हो गया | हुआ ये कि मैंने समस्या को ही बदल दिया – पहले समस्या ये थी कि बिस्तर ठीक करने के लिए हटाया क्या जाए और अब समस्या ये हो गयी कि बिस्तर ख़राब करने के लिए उस पर रखा क्या जाए या दुसरे शब्दों में – अब बिस्तर ठीक है ; उसे ठीक रखने के लिए क्या किया जाए | अर्थात्, मैंने अपने दिमाग की सारी नकारात्मक विसंगतियों से एक झटके में मुक्ति पा ली और मेरी समस्या मात्र इतनी रह गयी कि उनको अपने मस्तिष्क से दूर कैसे रखूँ ना कि उनसे निजात कैसे पाऊं| कितना सरल लेकिन कितना प्रभावी | इसी प्रकार जब आपको ऐसा महसूस हो कि आप विनाश के कुचक्र में फंस चुके हैं तो सांस रोकिये – समस्या को १८० डिग्री घुमाइए और बस निश्चिंत हो जाइये – आप कुचक्र से निकल चुके हैं पर अफ़सोस तो इस बात का है कि जो इस कुचक्र में फंस जाते हैं उन्हें ये पता ही नहीं चलता कि वो किस हद तक इसमें फंस चुके हैं और यहीं पर आपके मित्र और रिश्तेदार काम आते हैं | इसलिए उनकी बात सुनना जरूरी है नहीं तो आप भी कुछ दिन बाद यही कहेंगे – विनाशकाले विपरीत बुद्धि |