देहाती औरत

writing

 

बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं, पता नहीं क्यों? लिखने को तो बहुत विषय थे- राजनीति पर लिख सकता था, खेल पर लिख सकता था, प्रेम पर लिख सकता था, मित्रता पर लिख सकता था, अपने उद्यम पर लिख सकता था, अपनी यात्रा पर लिख सकता था, कविता लिख सकता था, कहानी लिख सकता था, संस्मरण लिख सकता था, वृतांत लिख सकता था परन्तु आश्चर्य है कुछ भी नहीं लिखा ……………….

शायद मेरे इतने पाठक नहीं है इसलिए, या फिर इतने आलोचक नहीं है इसलिए! आचार्य गुलाब राय की तरह मैं ये तो नहीं पूछ सकता कि क्या लिखूं, लेकिन ये अवश्य पूछ सकता हूँ, “क्यों लिखूं”, क्यों मैं मेहनत करूँ, क्या मिलेगा लिख कर – साधना के लिए साध्य का होना आवश्यक है, मेरे लिए क्या साध्य है- कुछ भी तो नहीं ……………फिर मैं क्यों लिखूं अपितु ये पूछना अधिक प्रासंगिक होगा कि मेरे न लिखने से क्या किसी को कोई फर्क पड़ेगा, क्या साहित्य जगत में कोई अकाल आ जाएगा या इससे भी मौलिक प्रश्न ये है कि क्या मेरी रचनायें साहित्य का हिस्सा बनने की क्षमता भी रखती हैं अथवा मैं यूँ ही अपनी लेखनी (की-बोर्ड) को कष्ट दिए जा रहा हूँ | मेरे जैसे अनगिनत लेखक बैठे हैं, फिर मैं लिखूं न लिखूं क्या फर्क पड़ता है, सागर में एक बूँद अधिक हो या कम | इसी तरह के अनगिनत प्रश्न मेरे दिमाग में चकरघिन्नी की तरह घूम रहे थे और इसी सब में इतना समय निकल गया|

परन्तु क्या इन सारे प्रश्नों की जड़ में एक बाह्य प्रेरणा की इच्छा नहीं छिपी हुई है कि कोई मुझे पढ़े, कोई मुझे सराहे तभी मेरी रचनाएं अपने मुकाम तक पहुंचेंगी | क्या सृजन का एकमात्र उद्देश्य, एकमात्र साध्य यही है कि कोई दूसरा व्यक्ति उसकी समीक्षा करे – क्या ये उस दिखावे की इच्छा से प्रेरित नहीं है जो कि आज के सामाजिक जीवन का अविभाज्य अंग बन गया है |

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी- एक बूढ़ी औरत एक गाँव में रहती थी | एक दिन उसने अपनी जोड़ी हुई रकम से सोने के कंगन बनवाए और बड़े ठाट से चल पड़ी अपने गाँव, सबको कंगन दिखाने और सबकी वाहवाही लूटने – “अम्मा, क्या कंगन बनवाए हैं खालिस सोने के!” पर गाँव पहुंची तो किसी ने उसके कंगनों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया | अब वो सीधे तो कह नहीं सकती थी कि देखो मैंने कंगन बनवाए हैं, हेठी हो जाती , अतः उसने विविध प्रकार के जतन किये कि लोग उसके कंगन को देख लें पर अफ़सोस, किसी ने ध्यान नहीं दिया | जब उसके सारे हथकंडे असफल हो गए तो रात में उसने अपने ही घर में आग लगा ली और बाहर निकल के जोर जोर से चिल्लाने लगी (हाथ हिला-हिला कर) – “हाय! देखो घर में आग लग गयी, बचाओ, बचाओ |” लोग घरों से पानी ला के आग बुझाने लगे, इतने में किसी औरत की नज़र उसके हाथों (कंगन) पर गयी और उसने कहा –“अरे अम्मा! ये नए कंगन कब बनवाए, बड़े सुन्दर हैं|” अपनी साध पूरी होने पर बूढ़ी औरत ने कहा- “अरी! यही कंगन अगर पहले देख लेती तो मुझे घर में आग क्यों लगानी पड़ती|”

क्या मेरी सोच भी उसी भावना को परिलक्षित नहीं करती, क्या मेरा साध्य मात्र सृजन नहीं हो सकता, क्या मेरा सृजन मुझे प्रसन्नता नहीं देता, क्या मैं अपनी रचनाओं को बारम्बार पढ़ कर मन ही मन आह्लादित नहीं होता , क्या ये रचनायें मुझे अपने अतीत से बाँधे रखने में मदद नहीं करती| फिर मैं सिर्फ इस बात का इंतज़ार क्यों करूँ कि मेरी बहुत बड़ी प्रशंसकों की सेना होगी और वो अपनी समीक्षाओं से मुझे सराबोर कर देगी – यदि ऐसा होता है तो अच्छा है, लेकिन ऐसा नहीं भी होता है तो भी अच्छा है| मैं क्यों प्रसिद्धि और प्रशंसा रुपी मरीचिकाओं के पीछे भाग कर अपने सृजनात्मक-हार्मोनों का गला घोट रहा हूँ | आखिर मैं क्यों “देहाती औरत” बन रहा हूँ ?