लक (लघु कथाएँ) – १

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राकेट

इस बार दिवाली पर उसने बड़ा राकेट छोड़ने की ठान ली थी | जब दादाजी की पुरातन साइकिल पर वो लम्बा वाला राकेट ले कर घर पहुंचा तो घर के अहाते में बैठे हुए दादाजी के चेहरे पर एक महीन मुस्कान तैर गई – “ इस साइकिल के भी क्या दिन आ गए हैं – पहले इस पर असली राकेट जाते थे , अब नकली राकेट से काम चलाना पड़ता है |” उसके दादाजी इसरो के पूर्व वैज्ञानिक थे !!!!!

 

मछ्ली

पंडितजी ने भी अजीब सा जंजाल गले में डाल दिया था – हर बुधवार को मछलियों को दाना डालने का ! अब इतने बड़े शहर में, वो भी weekday में, कहाँ मछली खोजने जाये|

हाँ! याद आया, वो मछ्ली बाज़ार के पास ही तो एक छोटा सा तालाब है, वहाँ ज़रूर मछली मिल जाएगी | उसने पैक्ड “फिश फूड” खरीदा और पहुँच गया तालाब, वहाँ तैरती हुई मछलियों को खाना खिलाने में बहुत आनंद आया |

उसे भी भूख लग चली थी की इतने में पत्नी ने फोन करके पूछा – “आज बहुत देर हो गई है, खाने में कुछ खास बनाऊँ क्या ?” उसने जवाब दिया – “अरे ! तैयारी कर लो , मैं आज खाने के लिए बहुत खास चीज़ ले कर आ रहा हूँ |”; “क्या?” ” मछली |”

डर

जब वो बिस्तर पर लेटने आया तो उसकी माँ उसकी तरफ पीठ कर के लेटी थी | पापा हमेशा की तरह देर से आने वाले थे , फिर ड्राइंग रूम में टीवी कौन देख रहा था ? वो उठ कर टीवी ऑफ करने की सोच ही रहा था कि ड्राइंग रूम से उसे माँ की आवाज सुनाई दी – “ बेटा राहुल ! तुम्हे अकेले कमरे में डर तो नहीं लग रहा ?” !!!!